दुनिया मै सुख दुख क्यों है |
जीवन में दुख-ही-दुख क्यों हैं? परमात्मा ने यह कैसा जीवन रचा है?
जीवन दुख-ही-दुख नहीं है। यह तुमसे
किसने कहा? हां यहां दुख भी हैं, लेकिन दुख केवल भूमिकाएं हैं सुख की। जैसे फूल के पास कांटे लगे
हैं, वे सुरक्षायें हैं फूल की। कांटे
फूलों के दुश्मन नहीं हैं; उनके रक्षक हैं, पहरेदार हैं। कांटे फूलों के सेवक हैं।
जीवन दुख-ही-दुख नहीं है। यद्यपि
दुख यहां हैं। पर हर दुख तुम्हें निखारता है और बिना निखारे तुम सुख को अनुभव न कर
सकोगे। हर दुख परीक्षा है। हर दुख प्रशिक्षण है। ऐसा ही समझो कि कोई वीणावादक
तारों को कस रहा है। अगर तारों को होश हो तो लगेगा कि बड़ा दुख दे रहा है, मीड़ रहा है, तारों को कस रहा है, बड़ा दुख दे रहा है! लेकिन वीणावादक तारों को दुख नहीं दे रहा है; उनके भीतर से परम संगीत पैदा हो सके, इसका आयोजन कर रहा है। तबलची ठोंक रहा है तबले को हथौड़ी से। तबले
को अगर होश हो तो तबला कहे ः बड़ा दुख है, जीवन में दुख-ही-दुख है! जब देखो तब हथौड़ी, चैन ही नहीं है। मगर तबलची तबले को सिर्फ तैयार कर रहा है कि नाद
पैदा हो सके।
दुख नहीं है, जैसा तुम देखते हो वैसा। परमात्मा तुम्हें तैयार कर रहा है। यह सुख
की अनंत यात्रा है। लेकिन यात्रा में कुछ कीमत चुकानी पड़ती है, मूल्य चुकाना पड़ता है। सोने को शुद्ध होने के लिये आग से गुजरना
पड़ता है। बीज को वृक्ष होने के लिये टूटना पड़ता है। नदी को सागर होने के लिये खोना
पड़ता है। इस सबको तुम दुख कहोगे? दुख कहोगे तो चूक
गये बात। यह कोई भी दुख नहीं है। ऐसा जो जानता है वही जानता है। यहां दुख भी हैं; सुख भी हैं। लेकिन हर दुख सुख की सेवा में रत है। यहां कांटे भी
हैं, फूल भी हैं लेकिन हर कांटा फूल की
सेवा में रत है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।
और जिनकी आंखें कभी रोई नहीं, उनकी मुस्कान बासी होती है। उनकी मुस्कान में तुम धूल जमी पाओगे।
उनकी मुस्कान में धुलावट नहीं होती। उनकी मुस्कान में चमक नहीं होती। जो रोये ही
नहीं कभी, जिनकी आंखों से आंसू नहीं बहे कभी, उनके ओंठ गंदे होते हैं। आंख से आंसू बहते रहें, तो ओंठ ताजे होते हैं, सद्यःस्नात होते हैं। जो रो सकता है, जब हंसता है, तो उसकी हंसी में फूल झरते हैं। और
जो रोने की कला जानता है उसके तो आंसुओं में भी फूल झरने लगते हैं। जो पूरा-पूरा
निष्णात हो जाता है उसके आंसू भी सुंदर हैं, उसकी मुस्कराहट भी सुंदर है।
अगर समझ हो तो तुम जब माला गूंथो
फूलों की, अगर होशियार हो तो कांटों का भी
उपयोग कर सकते हो। देखने की आंख चाहिये।
अब तुम देखते हो, नये युग में गुलाब से भी ज्यादा आदृत कैक्टस हो गया है। देखने की
आंख चाहिये। लोगों ने घरों में गुलाब नहीं लगा रखे हैं, लोगों ने घरों में कैक्टस रख छोड़े हैं। कैक्टस! आज से तीन सौ साल
पहले या दो सौ साल पहले दुनिया में अगर कोई घर में अपने कैक्टस रखता तो लोग उसको
पागल समझते, कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, यह धतूरे का पेड़ कहां भीतर लिये आ रहे हो! यह जहर है! इसका कांटा
किसी को गड़ जायेगा, मौत हो जायेगी। लोग इस तरह के
कैक्टस के झाड़ तो खेतों की बागुड़ में लगाते थे सिर्फ, ताकि जानवर न घुस जायें, कोई चोरी खेत से न कर ले जाये। इनको कोई घर में लाता था?
लेकिन मनुष्य की संवेदनशीलता विकसित
होती गई है, परिष्कार हुआ है। अब कैक्टस में भी
एक सौंदर्य है! और निश्चित सौंदर्य है। अब दिखाई पड़ना शुरू हुआ कैक्टस का सौंदर्य।
ऐसी ही घटना घटती है। आंखवाले को दुख में भी सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। सुख
दिखाई पड़ने लगता है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।
प्रार्थना बेला पुजारिन,
क्यों प्रकम्पित गात तेरा।
है यहां अवहेलना भी,
पर यहां वरदान भी है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।
डगमगाते क्यों चरण,
मंजिल तुझे करती इशारा।
देख इस अनजान पथ की,
एक चिर पहचान भी है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।
अबल है या सबल मानव,
हृदय युग-युग की समस्या।
है यहां यदि प्राप्ति आशा,
तो यहां प्रतिदान भी है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।
आंसुओं की लहरियों पर,
हास का सरसिज खिला है।
है हृदय में करुण क्रन्दन,
पर स्वरों में गान भी है।
हैं नयन में अश्रु भी यदि,
अधर पर मुस्कान भी है।
थोड़ा जागो। थोड़ा खोजो। किसने तुमसे
कहा कि जीवन में दुख ही दुख है? ये तुम्हारे
तथाकथित त्यागीत्तपस्वी, ये तुम्हें इसी तरह के व्यर्थ बातें
कहते रहे हैं ः जीवन में दुख ही दुख है, कांटे ही कांटे हैं, सब बुरा ही बुरा है। त्यागो। भागो। छोड़ो।
लेकिन खयाल रखना, जो जीवन को त्यागता है, जीवन को छोड़ता है, उसने परमात्मा का
अपमान किया है। वह नास्तिक है। वह आस्तिक नहीं है। क्यों मैं ऐसा कह रहा हूं? खूब सोचकर ऐसा कह रहा हूं। अगर तुम चित्रकार को प्रेम करते हो तो
उसके चित्र का त्याग कैसे करोगे? और अगर तुम
मूर्तिकार को प्रेम करते हो तो उसकी मूर्ति का त्याग कैसे करोगे? और अगर तुमने संगीतज्ञ को चाहा है तो तुम उसकी वीणा को सिर-माथे
धरोगे। परमात्मा ने अगर यह सृष्टि की है तो तुम इसका त्याग कैसे करोगे? इसके त्याग में तो परमात्मा के प्रति शिकायत है। इसके त्याग में तो
यह घोषणा है कि यह तूने क्या बनाया? इसके त्याग में तो इस बात की घोषणा है कि तुझसे अच्छा तो हम जानते
हैं कि कैसा जगत होना चाहिये था, हम बना लेते
तुझसे अच्छा, यह तूने क्या बनाया? यह कैसा दुख ही दुख भर दिया है?
नहीं, दुख ही दुख नहीं है। दुख पृष्ठभूमि है सुख की। और जैसे रात में ही
तारे दिखाई पड़ते हैं, दिन में भी तारे होते हैं आकाश में, कहीं भाग नहीं गये हैं, कोई दिन में संन्यास नहीं लेते तारे। दिन में भी आकाश तारों से भरा
है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि पृष्ठभूमि नहीं है। अंधेरे की पृष्ठभूमि चाहिये! इसलिये
जितनी अंधेरी रात होती है उतने तारे चमकते हैं। अमावस की रात तारों में जैसी
ज्योति होती है वैसी कभी नहीं होती। काले ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं न हम सफेद खड़िया
से; सफेद दीवाल पर लिखो, कुछ दिखाई न पड़ेगा। लिखावट भी हो जायेगी, कुछ दिखाई न पड़ेगा। ब्लैकबोर्ड पर लिखना पड़ता है, तब कुछ दिखाई पड़ता है। पृष्ठभूमि चाहिये। दुख सुख की पृष्ठभूमि है।
कांटे फूलों की पृष्ठभूमि हैं। आंसू मुस्कुराहटों की पृष्ठभूमि हैं। और तुम
पृष्ठभूमि को छोड़ दोगे, तो तुम्हारा जीवन बिलकुल नीरस हो
जायेगा, अस्त-व्यस्त हो जायेगा। तुम्हारे
जीवन की सारी आधारशिला गिर जायेगी। मगर त्यागीत्तपस्वी यही सिखाता रहा है कि भागो।
वह तुम्हें अंगुलियां गड़ा-गड़ाकर दिखाता रहा है...तुम्हारी आंख में अंगुलियां डाल
डालकर दिखाता रहा है कि यह दुख, यह दुख। वह दुखों
की गिनती करवाता रहा है। किसी ने तुम्हें सुखों की गिनती नहीं करवाई अब तक।
और मैं तुमसे कहता हूं ः ऐसा कोई
दुख ही नहीं है जो सुख का आयोजन न कर रहा हो। हर दुख सुख के लिये पृष्ठभूमि है; सुख के तारों के लिये अमावस की रात है। इसे जानना मैं जीवन की कला
मानता हूं। तब यह सारा जगत अपूर्व सौंदर्य से भरा हुआ मालूम होगा। और उस अपूर्व
सौंदर्य में ही परमात्मा की पहली झलक मिलती है।
खयाल रखो, जिस जीवन में चुनौतियां नहीं हैं दुख की वह जीवन नपुंसक हो जाता
है। जिस जीवन में बड़े प्रश्न नहीं जगते उस जीवन में बड़ा चैतन्य पैदा नहीं होता
समाधि का भी पहला चरण गहन अंधकार
है। क्योंकि जब सब तरफ अंधेरा हो जाता है तो चेतना को बाहर जाने का उपाय नहीं रहता, चेतना अपने पर वापस लौट आती है। इसीलिए तो रात हम सोते हैं, अगर प्रकाश हो तो नींद में बाधा पड़ती है, क्योंकि चेतना को बाहर जाने के लिए मार्ग होता है। अंधकार हो तो
चेतना अपने पर वापस लौट आती है। अंधकार में मार्ग नहीं है किसी और को देखने का, इसलिए अपने को ही देखने की एकमात्र शेष संभावना रह जाती है।
पर अंधकार के प्रति हमारा भय है।
इसलिए हम अंधेरे में कभी भी नहीं जीते। अंधेरा हुआ कि हम फिर सो जाएंगे। उजाला हो
तो हम जी सकते हैं। इसलिए पुरानी दुनिया सांझ होते सो जाती थी, क्योंकि उजाला न था। अब नई दुनिया के पास उजाला है कि वह रात को भी
दिन बना ले, तो अब दो बजे तक दिन चलेगा। बहुत
संभावना है कि धीरे-धीरे रात खतम ही हो जाए, क्योंकि हम प्रकाश पूरा कर लें। अंधेरे में फिर हमें सोने के सिवाय
कुछ भी नहीं सूझता, क्योंकि कहीं जाने का रास्ता नहीं
रह जाता। लेकिन काश हम अंधेरे में जाग सकें, तो हम समाधि में प्रवेश कर सकते हैं।
तो पहले पांच मिनट हम गहन अंधकार
में डूबेंगे। एक ही भाव रह जाए मन में कि अंधकार है, अंधकार है, चारों तरफ अंधकार है। सब तरफ अंधकार
घिर गया और हम उस अंधकार में डूब गए, डूब गए, डूब गए। पूर्ण अंधकार रह गया है और हम
हैं, और अंधकार है। तो पांच मिनट पहले इस
अंधकार के प्रयोग को करेंगे। फिर मैं दूसरा प्रयोग समझाऊंगा। फिर तीसरा। और अंत
में तीनों को जोड़ कर फिर हम ध्यान के लिए, समाधि के लिए बैठेंगे।
तो सबसे पहले तो एक-दूसरे से
थोड़ा-थोड़ा फासले पर हट जाएं। चिंता न करें बिछावन की, अगर नीचे भी बैठ जाएंगे तो उतना हर्ज नहीं है जितना कोई छूता हो।
क्योंकि कोई छूता हो तो कोई मौजूद रह जाएगा, अंधेरा पूरा न हो पाएगा। तो बिलकुल कोई न छूता हो। और इसका भी खयाल
न रखें कि दूसरा हट जाए। दूसरा कभी नहीं हटेगा; स्वयं को ही हटना पड़ेगा। तो हट जाएं, चाहे जमीन पर चले जाएं, चाहे पीछे हट जाएं। लेकिन कोई किसी को किसी भी हालत में छूता हुआ न
हो। और इतने धीरे न हटें, जमीन पर बैठ गए तो क्या हर्जा हुआ
जाता है! बिलकुल सहजता से हट जाएं। एक भी व्यक्ति छूता हुआ न हो।
मैं मान लूं कि आप हट गए हैं, कोई किसी को नहीं छू रहा है। अगर अब भी कोई छू रहा हो तो उठ कर
बाहर आ जाए और अलग बैठ जाए।
अब आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। शरीर ढीला
छोड़ दिया है, आंख बंद कर ली है। और देखें भीतर, अनुभव करें--अंधकार, महा अंधकार है...विराट अंधकार फैल गया है...चारों तरफ सिवाय अंधकार
के और कुछ भी नहीं। अंधकार है...अंधकार है...। बस एकदम अंधकार ही अंधकार है। जहां
तक खयाल जाता है, अंधकार...अंधकार...अंधकार...। पांच
मिनट के लिए इस अंधकार में डूबते जाएं। बस अंधकार ही शेष रह जाए। छोड़ दें अपने को
अंधकार में। और पांच मिनट के अंधकार का अनुभव मन को बहुत शांत कर जाएगा। समाधि की
पहली सीढ़ी खयाल में आ जाएगी। मृत्यु की भी पहली सीढ़ी खयाल में आ जाएगी।
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अनुभव करें अंधकार का, बस अंधकार ही अंधकार है चारों ओर, सब तरफ मन को घेरे हुए अंधकार है, दूर-दूर तक घनघोर अंधकार है। कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता, कुछ भी नहीं सूझता, हम हैं और अंधकार
है। पांच मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। आप गहरे अंधकार को अनुभव करते हुए, करते हुए अंधकार में डूब जाएं...
बस अंधकार शेष रह गया है...अंधकार
और अंधकार, महा अंधकार, सब अंधेरा हो गया है...कुछ भी नहीं सूझता, अंधकार है, जैसे अंधेरी रात ने चारों ओर से घेर
लिया...मैं हूं और अंधकार है...
अंधकार ही अंधकार है...डूब
जाएं...छोड़ दें...बिलकुल अंधेरे में डूब जाएं। अंधकार ही अंधकार शेष रह
गया...अंधकार है, बस अंधकार है, अंधकार ही अंधकार है...अनुभव करते-करते मन बिलकुल शांत हो
जाएगा...अंधकार ही अंधकार है...अंधकार ही अंधकार है...मन शांत होता जा रहा है। मन
बिलकुल शांत हो जाएगा। अंधकार ही अंधकार है...छोड़ दें अपने को, अंधकार में बिलकुल छोड़ दें...अंधकार ही अंधकार है...बस अंधकार ही
अंधकार है...छोड़ दें अंधकार में, महान अंधकार चारों
ओर रह गया। मैं हूं और अंधकार है। न कुछ दिखाई पड़ता, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, बस अंधकार ही अंधकार मालूम होता है...डरें नहीं, छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें। अंधकार ही अंधकार
शेष रह गया है। और मन एकदम शांत हो जाएगा। अंधकार परम शांतिदायी है। मन का कण-कण
शांत हो जाएगा। मस्तिष्क का कोना-कोना शांत हो जाएगा।
अंधकार में डूब जाएं, अंधकार ही अंधकार है...अंधकार ही अंधकार है...अंधकार ही अंधकार
है...मन बिलकुल शांत हो गया है, मन शांत हो गया
है, मन शांत हो गया है...अंधकार ही अंधकार है...चारों ओर अंधकार
है...मैं हूं और अंधकार है...कुछ भी नहीं सूझता, कोई और दिखाई नहीं पड़ता, अंधकार है...अंधकार है...। मन शांत हो गया है, मन बिलकुल शांत हो गया है...
अब धीरे-धीरे आंखें खोलें...बाहर भी
बहुत शांति मालूम पड़ेगी। धीरे-धीरे आंखें खोलें...फिर दूसरा प्रयोग समझें, और उसे पांच मिनट के लिए करें। समाधि की पहली सीढ़ी है अंधकार का
बोध। धीरे-धीरे आंख खोलें...बाहर भी बहुत शांति मालूम पड़ेगी।
अब दूसरा चरण समझ लें। फिर पांच
मिनट उसे हम करेंगे। जब कोई मरता है तो गहन अंधकार में चारों ओर से घिर जाता है।
मृत्यु के पहले चरण पर अंधकार घेर लेता है। वह सारा जगत जो दिखाई पड़ता था, खो जाता है। वे सब प्रियजन, मित्र, अपने, पराये, वे जो चारों तरफ थे, सब खो जाते हैं और एक अंधकार का पर्दा चारों तरफ से घेर लेता है।
लेकिन हम अंधकार से इतना डरते हैं कि उस डर के कारण बेहोश हो जाते हैं। काश हम
अंधकार को भी प्रेम कर पाएं, तो फिर मृत्यु में बेहोश होने की
जरूरत न रह जाए। और समाधि में जिन्हें जाना है उन्हें अंधकार को प्रेम करना सीखना
पड़े, अंधकार को आलिंगन करना सीखना पड़े, अंधकार में डूबने की तैयारी दिखानी पड़े। इसलिए पहले चरण में पांच
मिनट अंधकार को अपने चारों ओर घिरा हमने देखा। अब दूसरी बात समझ लेनी चाहिए।
मृत्यु का या समाधि का दूसरा चरण है: एकाकीपन का बोध, मैं अकेला हूं। मृत्यु के दूसरे चरण में अंधकार के घिरते ही पता
चलता है कि मैं अकेला हूं। कोई भी मेरा नहीं, कोई भी संगी नहीं, कोई भी साथी
नहीं। लेकिन जीवन भर हम इसी ढंग से जीते हैं कि लगता है--सब हैं मेरे--मित्र हैं, प्रियजन हैं, अपने हैं। अकेला हूं, इसका कभी खयाल भी नहीं आता। अगर खयाल आए भी तो जल्दी किसी को अपना
बनाने निकल पड़ता हूं, ताकि अकेलेपन का खयाल न आए। बहुत कम
लोग, बहुत कम क्षणों पर, अकेले होने का अनुभव कर पाते हैं। और जो मनुष्य अकेले होने का
अनुभव नहीं कर पाता, वह अपना अनुभव भी नहीं कर पाएगा। जो
व्यक्ति निरंतर ऐसा ही सोचता है कि दूसरों से जुड़ा हूं, दूसरों से जुड़ा हूं--दूसरे हैं, संगी हैं, साथी हैं--उसकी नजर कभी अपने पर
नहीं जा पाती है।
मृत्यु का भी दूसरा अनुभव जो है वह
अकेले का अनुभव है। इसलिए मृत्यु हमें बहुत डराती है। क्योंकि जिंदगी भर हम अकेले
न थे, और मृत्यु अकेला कर देगी। असल में
मृत्यु का डर नहीं है, डर है अकेले होने का।
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