प्रकृति किसे कहते है/प्रकृति की परिभाषा/प्रकृति का अर्थ क्या होता है
प्रकृति किसे कहते है/प्रकृति की परिभाषा/प्रकृति का अर्थ क्या होता है |
प्रकृति की परिभाषा
विशेषण
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1
प्रकृति से उत्पन्न, नैसर्गिक
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2
प्रकृति संबंधी
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3
लौकिक, सांसारिक
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4
प्रकृति (जैसे—आमिष पशुओं का प्राकृतिक भोजन है)
·
5
मित्रों अभी कुछ दिन पहले किसी ने मुझसे कहा कि भाई आज से
मैं मंदिरों में भगवान की पूजा नहीं करूँगा, आज से
मैं प्रकृति की पूजा करूँगा | मैंने कहा यह तो अच्छी बात है, प्रकृति ईश्वर ही तो है| किन्तु मंदिर में रखी पत्थर की
मूरत भी तो प्रकृति है| क्या
पत्थर प्रकृति की देन नहीं है? और फिर हम तो मानते हैं कि कण-कण में ईश्वर है, तो यह ईश्वर जब प्रकृति में है
तो उस पत्थर में क्यों नहीं हो सकता?
मित्रों
मैं किसी
की आस्था को ठेस नहीं पहुंचा रहा| ईश्वर की परिभाषा तो सभी धर्म एक ही देते हैं|
धन्य है
हमारी सनातन पद्धति जिसने हमें जीना सिखाया| सनातन कोई धर्म नहीं अपितु जीवन जीने की पद्धति है| और अब तो सभी का ऐसा मानना है
कि यही सर्वश्रेष्ठ पद्दति है, जिसने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया| जियो और जीने दो का नारा दिया| इसी विश्वास के साथ हम अपनी
सनातन पद्धति में जीते रहे और कभी किसी के अधिकारों का हनन नहीं किया| कभी किसी अन्य सम्प्रदाय को
नष्ट करने की चे ष्टा नहीं की| कभी किसी देश के संवैधानिक मूल्यों का अतिक्रमण हमने नहीं
किया| बस सबसे
यही आशा की कि जिस प्रकार हम प्रेम से जी रहे हैं उसी प्रकार सभी जियें| किन्तु दुर्भाग्य ही था इस माँ
का जो कुछ सम्प्रदायों ने हमारी सनातन पद्धति को नष्ट करने की चेष्टा की| हज़ार वर्षों से अधिक परतंत्र
रहने के बाद भी हमारी सनातन पद्धति सुरक्षित है यही हमारी पद्धति की महानता है, यही हमारी संस्कृति की आहीनता है| मुझे गर्व है मेरी संस्कृति पर|
अभी कुछ
दिन पहले मैंने एक वीडियो देखा| इस वीडियो में डॉ. जाकिर नाईक से एक प्रश्न पूछा गया कि
मुसलामानों को वंदेमातरम क्यों नहीं गाना चाहिए?
उत्तर
में जाकिर नाईक का कहना है कि ”मुसलमानों को ही नहीं अपितु हिन्दुओं को भी वंदेमातरम नहीं
गाना चाहिए| क्यों कि
वंदेमातरम का अर्थ है कि मैं अपने घुटनों पर बैठ कर अपनी मातृभूमि को प्रणाम करता
हूँ, उसे
पूजता हूँ| जबकि
हिन्दू उपनिषदों और वेदों में यह लिखा है कि भगवान् का कोई रूप नहीं है, कोई प्रतिमा नहीं है, कोई मूर्ति नहीं है| फिर भी यदि हिन्दू अपनी
मातृभूमि को पूजते हैं तो वे अपने ही धर्म के विरुद्ध हैं| जबकि हम मुसलमान अपनी मातृभूमि
से प्रेम करते हैं, आदर करते
हैं, और
आवश्यकता पड़ने पर अपनी जान भी इसके लिए दे सकते हैं किन्तु इसकी पूजा नहीं कर
सकते| क्योंकि
यह धरती खुदा ने बनाई है और हम खुदा की पूजा करते हैं| हम रचयिता की पूजा करते हैं
रचना की नहीं|”
क्या प्रकृति ने हमें जन्म नहीं दिया
मेरे पूर्वज जिन्होंने मेरे कुल को जन्म दिया वे �¤ �ुरखे मेरी माँ हैं
सनातन पद्धति कहती है कि ईश्वर माँ है| माँ का अर्थ केवल वह स्त्री नहीं जिसने हमें जन्म दिया है| माँ तो वह है जिससे हमारी उत्पत्ति हुई है| जिस स्त्री ने नौ मास मुझे अपनी कोख में रखा व उसके बाद
असहनीय पीड़ा सहकर मुझे जन्म दिया वह स्त्री मेरी माँ है, जिस स्त्री ने मुझे पाला मेरी दाई, मेरी दादी, मेरी
नानी, मेरी चाची, मेरी ताई, मेरी मासी, मेरी बुआ, मेरी मामी, मेरी बहन, मेरी भाभी ये सब मेरी माँ है, जिस
पुरुष ने मुझे जन्म दिया वह पिता मेरी माँ है, मेरे
गुरु, मेरे आचार्य, मेरे
शिक्षक जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया वे सब मेरी माँ हैं, जिस मिट्टी में खेलते हुए मेरा बचपन बीता वह मिट्टी मेरी माँ
है, जिन खेतों ने अपनी फसलों से मेरा पेट भरा वह भूमि मेरी माँ
है, जिस नदी ने अपने जल से मेरी प्यास बुझाई वह नदी मेरी माँ है, जिस वायु में मै सांस ले रहा हूँ वह वायु मेरी माँ है, जिन औषधियों ने मेरी प्राण रक्षा की वे सब जड़ी बूटियाँ मेरी
माँ हैं, जिस गाय का मैंने दूध पिया वह गाय मेरी माँ है, जिन पेड़ों के फल मैंने खाए, जिनकी
छाँव में मैंने गर्मी से राहत पायी वे पेड़ मेरी माँ हैं, वे बादल जो मुझ पर जल वर्षा करते हैं वे बादल मेरी माँ है, वह पर्वत जो मेरे देश की सीमाओं की रक्षा कर रहा है वह पर्वत
मेरी माँ है, यह आकाश जिसे मैंने ओढ़ रखा है
वह भी मेरी माँ है, वह सूर्य
जो मुझे शीत से बचाता है, अंधकार
मिटाता है वह अग्नि मेरी माँ है, वह
चन्द्रमा जो मुझ पर शीतल अमृत बरसाता है वह चंदा मामा मेरी माँ है, वह शिक्षा जिसे मैंने पढ़कर उन्नति की, वह विद्या मेरी माँ है, वह धन
जिससे मैंने अपना भरण पोषण किया वह मेरी माँ है, आपकी माँ
भी मेरी माँ है, वह सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, जीवन पद्धति, जीवन
मूल्य जिनमे मेरा जीवन बीत रहा है ये सब मेरी माँ हैं|
मित्रों
मैं फिर याद दिला दूं, मैं किसी
की आस्था को ठेस नहीं पहुंचा रहा| ईश्वर की परिभाषा तो सभी धर्म एक ही देते हैं| जैसे इस्लाम भी यही कहता है कि
खुदा का कोई रूप नहीं, आकार
नहीं, उसी
प्रकार हम भी तो ईश्वर की यही परिभाषा देते हैं| फिर हिन्दू और मुसलमान अलग कैसे? ईसाइयत में भी परमेश्वर की यही
परिभाषा है| गौतम
बुद्ध व महावीर जैन ने भी यही परिभाषा दी है| तो फिर अलग धर्म की आवश्यकता ही
क्या है| ऐ से तो
राम धर्म, कृष्ण
धर्म, हनुमान
धर्म और पता नहीं क्या क्या धर्म बन जाते| क्या पता ५०० वर्षों बाद कोई
गांधी धर्म ही बन जाए जो केवल महात्मा गांधी तक सीमित हो|
जैसा कि
ईश्वर की परिभाषा सभी धर्मों ने सामान ही दी है तो अंतर केवल इतना है कि उस ईश्वर
को मानने वाले किसी एक अनुयायी का हमने अनुसरण आरम्भ कर दिया| ईसाईयों ने प्रभु येशु का
अनुसरण किया, मुसलमानों
ने पैगम्बर मोहम्मद का अनुसरण आरम्भ किया, जैन धर्म ने महावीर जैन का
अनुसरण आरम्भ किया, बौद्ध
धर्म ने गौतम बुद्ध का अनुसरण आरम्भ किया, किन्तु सनातनियों ने प्रत्येक
महानता का अनुसरण आरम्भ किया| भगवान् राम, कृष्ण, हनुमान, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, साईं, गुरु नानक देव, गुरु गोविन्द सिंह, तथागत बुद्ध, महावीर जैन, प्रभु येशु, पैगम्बर मोहम्मद आदि इन सभी का
अनुसरण किया| जी हाँ
सभी का| सनातनी
वही है जो किसी भी धर्म स्थल पर पूरी आस्था के साथ ईश्वर की उपासना करता है| फिर चाहे वह मंदिर हो, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, जैन या बौद्ध मंदिर हो सभी
स्थानों पर ईश्वर तो एक ही है| क्यों कि यह तो कण कण में विराजमान है|
फिर मै
केवल रचयिता की पूजा करूँ किन्तु रचना की नहीं यह कैसे संभव है? मै मेरी माँ से प्रेम करता हूँ, तो जाहिर है मेरी माँ से जुडी
प्रत्येक वस्तु भी मुझे प्रिय है| मेरी माँ के हाथ का भोजन जो वह मुझे प्रेम से खिलाती है, वह मुझे प्रिय है, क्यों कि यह मेरी माँ की रचना
है| मेरी माँ
की वह लोरी जिसे गाकर वह मुझे सुलाती है वह भी मुझे प्रिय है, मेरी माँ की वह डांट जो मेरे
द्वारा कोई गलती करने पर मुझे पड़ती है वह भी मुझे प्रिय है| मेरी माँ तो रचयिता है जबकि ये
सब उसकी रचनाएं हैं अत: ये सब मुझे प्रिय हैं|
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